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राजनीतिक हैसियत की तस्वीर



संयुक्त राष्ट्र ने महिला सांसदों की संख्या में भारत को विश्व रैंकिंग में 193 देशों में 148वें स्थान पर रखा है। संयुक्त राष्ट्र का कहना है कि भारतीय संसद में महिलाओं को आरक्षण मिले। उनके लिए ‘कोटा’ लैंगिक समानता हासिल करने की प्रक्रिया में तेजी ला सकता है। महिलाओं के प्रतिनिधित्व को पुरुषों की संख्या के बराबर आने में 50 साल लगेंगे। दुनिया भर की संसद में महिलाओं का प्रतिशत 2015 में 22.6 से बढ़कर 2016 में 23.3 प्रतिशत हो गया। भारत का प्रतिशत दुनिया का करीब आधा है। भारत में महिला आरक्षण बिल 20 साल से अटका है। बिल 1996 में बना था और 2010 में राज्य सभा में पारित हो गया था लेकिन लोकसभा में वह अटका पड़ा है। महिला सशक्तीकरण की अवधारणा प्रत्यक्ष तौर पर महिलाओं की निर्णय लेने की क्षमता, नेतृत्व तथा आत्मनिर्भरता से जुड़ी है। यही कारण है कि राजनीति में महिलाओं की स्थिति की विवेचना करने के लिए 1971 में एक समिति गठित की गई थी। 

‘टुवर्डस इक्वालिटी’ शीर्षक से 1974 में प्रकाशित इस रिपोर्ट के अनुसार संस्थागत तौर पर सबसे बड़ी अल्पसंख्यक होने के बावजूद राजनीति में महिलाओं का असर नाममात्र है। इस संबंध में समिति ने सुझाव दिया था कि इस स्थिति को बदलने का उपाय यही है कि हर राजनीतिक दल महिला उम्मीदारों का एक कोटा निर्धारित करें। इसके लिए समिति ने नगर परिषदों और पंचायतों में 1993 में 73वें और 74वें संविधान संशोधन के माध्यम से ऐसा किया भी गया। पंचायती राज संस्था में महिलाओं की भागीदारी में ग्रामीण संरचना को सकारात्मक परिवर्तनों की दिशा में बढ़ाया।

यह निश्चित था कि अगर राजनीति के निचले पायदान में महिलाओं को आरक्षण नहीं मिलता तो वे किसी की तरह अपनी भागीदारी सुनिश्चित नहीं कर पातीं। गौरतलब है कि दक्षिण अफ्रीका की राष्ट्रीय असेंबली में अफ्रीकन नेशनल कांग्रेस ने महिलाओं का 44.8 प्रतिशत के साथ पार्टी में स्वेछा से कोटा देकर सबसे अछा उदाहरण पेश किया है। अफ्रीकन नेशनल कांग्रेस ने 1991 से महिलाओं के कोटे पर बहस शुरू की और अब वहां की संसद में 43.5 प्रतिशत महिलाएं हैं। अफ्रीकन नेशनल कांग्रेस का महिलाओं के लिए स्वैछिक कोटा देने के निर्णय ने वहां के विपक्षी दलों पर महत्त्वपूर्ण और सकारात्मक प्रभाव डाला। ‘आरक्षण’ के प्रश्न में विश्व का सबसे बुद्धिजीवी और मानवीय दृष्टिकोण रखने वाला समाज, महिलाओं के नेतृत्व पर अप्रत्यक्ष तौर पर प्रश्न खड़ा करता है। सबसे पहला प्रश्न तो यह है कि राजनीति में महिलाओं की आवश्यकता ही क्यों है? महिला के नेतृत्व पर अविश्वास करने वाले अधिकांशतया यह तर्क देते हैं कि महिलाओं में राजनीति की समझ कम होती है क्योंकि उनके जीवन का अधिकांश हिस्सा अपने घर-परिवार में व्यतीत हो जाता है। इसे आज भी महिलाओं की प्राथमिक जिम्मेदारी माना जाता है। दूसरे पुरुष नेताओं के मुकाबले महिलाओं के चुनाव जीतने की संभावना कम ही होती है।

पहला तर्क कुछ नया नहीं है। यह तर्क 19वीं सदी से ही दिया जाता है जब महिलाओं ने मताधिकार की मांग की थी। आज विश्व कार्यशक्ति में बड़ी संख्या में महिलाएं मौजूद हैं, दक्षिण अफ्रीका, नार्वे, डेनमार्क में वे विधायिका और अन्य निर्णयकारी निकायों में 40 प्रतिशत से अधिक की संख्या में हैं। इससे सिद्ध होता है कि अगर पर्याप्त सामाजिक और पारिवारिक समर्थन मिले तो महिलाएं घर के उत्तरदायित्व के साथ सार्वजनिक उत्तरदायित्वों को कुशलता से निभा सकती हैं। महिला नेतृत्व के समझ या आपत्ति जताया जाना कि उनके चुनाव जीत सकने की संभावना कम होती है तथ्यों से मेल नहीं खाती है। यह कटु सत्य है कि पुरानपंथी भारतीय समाज में पुरुषों की तुलना में महिला उम्मीदवारों के समक्ष विश्वसनीयता की समस्या यादा होती है। लेकिन महिलाओं को अपनी योग्यता सिद्ध करनी होती है। अपनी रूढ़िवादिता के दायरे को तोड़, अत्यंत रूढ़िवादी माने जाने वाले सउदी अरब के निकाय चुनाव देश के इतिहास में पहली बार हुए जिसमें महिलाओं ने मतदान में न केवल हिस्सा लिया बल्कि चुनाव भी लड़ा। जब राजनीति के प्रथम पायदान पर आरक्षण प्राप्त कर महिलाओं ने मौजूदा व्यवस्था में अपनी छाप छोड़ी है तो क्या ऐसा प्रथम स्तरीय प्रणाली में आरक्षण मिलने पर संभव नहीं होगा? यकीनन ऐसा होगा। 

सेंटर ऑफ स्टडीज ऑफ डेवलपिंग सोसाइटीज (सीएसडीएस) के सर्वे में भी 50 प्रतिशत से ज्यादा  मतदाताओं ने संसद और विधान सभाओं में महिलाओं को 33 प्रतिशत आरक्षण देने की वकालत की थी। सच यह है कि भारतीय महिलाओं के लिए राजनीतिक भागीदारी में सक्रिय भूमिका निभाना चुनौती है। संयुक्त राष्ट्र तथा सेंटर फॉर सोशल रिसर्च द्वारा राजनीति में महिलाओं के खिलाफ हिंसा पर किए गए अध्ययन में कहा गया है, भारत, नेपाल तथा पाकिस्तान में महिला मतदाताओं और राजनीतिक दलों में महिला उम्मीदवारों का प्रतिशत बढ़ा है, लेकिन राष्ट्रीय राजनीतिक संस्थानों में उनका प्रतिशत कम हुआ है। महिलाओं को राजनीति में आने से रोका जाता है। भारत में शारीरिक हिंसा, गाली गलौज और हिंसा की धमकी देकर उन्हें रोके जाने के प्रयास किए जाते हैं। राजनीति में प्रवेश करने से पहले कई और सामाजिक पहलू हैं जो एक महिला के लिए व्यवधान उत्पन्न करते हैं। ऐतिहासिक तौर पर महिलाओं का सार्वजनिक जीवन में यादा प्रतिनिधित्व नहीं रहा है। कई बार इसके विरुद्ध सांस्कृतिक रुझान भी उन्हें रोकता है। फिर भी इन चुनौतियों का सामना करते हुए भारतीय महिलाएं राजनीति में भागीदारी निभा रही हैं। इस सत्य को झुठलाया नहीं जा सकता कि जो महिलाएं पार्टी के अंदरूनी ढांचे में उपस्थिति दर्ज करवाने में कामयाब नहीं हैं उन्हें भी नेतृत्व के दूसरे दर्जे में धकेल दिया गया है। वह राजनीतिक दलों में नीति और रणनीति के स्तर पर बमुश्किल ही कोई अहम भूमिका निभाती हैं। अक्सर उन्हें ‘महिला मुद्दों’ तक केंद्रित कर दिया जाता है।

हाल में पांच रायों के विधानसभा चुनाव के बाद इन राज्य में बने मंत्रिमंडल में महिलाओं की संख्या देखकर, महिला नेतृत्व को लेकर प्रश्न गहरा जाते हैं। पांच रायों में बीते दिनों 86 मंत्रियों ने शपथ ली जिनमें सिर्फ नौ महिलाओं को स्थान मिल पाया है। यानी ‘आधी आबादी’ को सिर्फ 10 प्रतिशत हिस्सेदारी मिली है। महिलाओं की नेतृत्व पदों की यह उपस्थिति तब और अधिक खलती है जब वे दल जिनकी कमान महिलाओं के हाथों में है, महिलाओं को पर्याप्त प्रोत्साहन नहीं देते। कांग्रेस, बसपा, अन्नाद्रमुक और तृणमूल कांग्रेस का नेतृत्व महिलाएं कर रही हैं लेकिन महिलाओं को, राजनीतिक भूमिकाएं प्रदान करने में उनकी उदासीनता है। जब तक महिलाओं को राजनीति में आरक्षण नहीं मिलेगा तब तक उन्हें येन केन प्रकारेण, नेतृत्व के पिछले पायदान पर धकेल दिया जाएगा। अब जरूरी हो गया है कि महिला सशक्तीकरण को चरितार्थ करने के लिए, आरक्षण बिल पर गंभीरता से विचार किया जाए।


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