कट्टरता और हिंसा की राजनीति में कॉर्पोरेट और आतंकवाद की जरूरत पूरी कर रहे इस सियासी दौर में अगर निर्दोष साबित होने के बाद भी दुनिया का सबसे उदार, संगठित और आवश्यक आंदोलन बेमौत मर जाए तो ताजुब नहीं होना चाहिए। तुर्की से बेदखल लेखक, विचारक, इमाम और सूफी नेता फतउल्लाह गुलेन को तत्कालीन अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा ने पनाह दी थी। जर्मनी की ख़ुफिया एजेंसी और ब्रिटेन की संसद की एक रिपोर्ट पर यह साबित हो चुका है कि तुर्की में पिछली गर्मियों में सेना के कथित सत्ता पलट की कोशिश में फतउल्लाह गुलेन का कोई हाथ नहीं है फिर भी यह खबर निराश करती है कि अमेरिका गुलेन को तुर्की प्रत्यर्पित कर सकता है, जिसका साफ़ मतलब है कि अगर ऐसा होता है तो दुनिया भर में अस्पताल और स्कूल चलाने वाले 75 साल के फतउल्लाह गुलेन की बाकी जिंदगी जेल में कटेगी।
वहाबी आतंकवाद की तपिश महसूस कर रहे दुनिया के हर देश के लिए यह डराने वाली खबर है। गुलेन को एक साजि़श के तहत सत्ता पलट में फंसाने और दुनिया के आतंकवादी समूह इस्लामिक स्टेट के लिए धन, तेल, हथियार, प्रशिक्षण और संसाधन का इंतज़ाम करने के आरोप ङोल रहे तुर्की के राष्ट्रपति और बेहद कट्टर वहाबी विचारधारा आधारित राजनीतिक दल मुस्लिम ब्रदरहुड के बदनाम नेता तैयब इदरेगन के लिए यह सुकून भरी खबर है कि उनकी ही तरह दक्षिणपंथी राजनीति करने वाले अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप उनकी मदद कर रहे हैं। जबकि होना चाहिए था कि गुलेन पर जो आरोप लगे हैं उसकी निष्पक्ष जांच के बाद इदरेगन पर कार्रवाई हो। तुर्की में पिछली जुलाई की 15 तारीख को अचानक खबर आई कि ‘पीस एट होम कौंसिल’ ने देश के पांच कोनों यानी उत्तर, पश्चिम, पूरब, दक्षिण और मध्य के पांच शहरों में इदरेगन सरकार के ख़िलाफ़ बगावत कर दी। कथित रूप से ग्रुप में सेना के कुछ जवान थे जो सरकार के इस्लामीकरण, धर्म निरपेक्षता के क्षरण और पूरी दुनिया में तुर्की की गिरती साख से नाराज थे। बग़ावत फेल हो गई और सैकड़ों लोग गिरफ्तार कर लिए गए। आज दुनिया में सबसे •ज्यादा पत्रकार तुर्की की जेलों में बंद हैं। बड़ी आसानी से इदरेगन सरकार ने उनके राजनीतिक प्रतिद्वंद्वी समझे जाने वाले गुलेन पर इसका आरोप लगाया। सत्तापलट की कोशिश से बागियों को जेल और निर्वासन मिला लेकिन इसका सबसे बड़ा फायदा तो इदरेगन को हुआ। पहले ही अमेरिका में राजनीतिक निर्वासन झेल रहे गुलेन की तुर्की वापसी की संभावनाओं को इदरेगन ने हमेशा के लिए खत्म कर दिया। तुर्की समेत पूरी दुनिया में मानव कल्याण के लिए काम कर रहे उनके संगठन ‘हिजमत’ (सेवा) को प्रतिबंधित कर दिया। हिजमत के अधीन चलने वाले सैकड़ों स्कूलों और कई अस्पतालों पर ताले लटका दिए गए। इतना ही नहीं इदरेगन ने अपने प्रभाव वाले देशों में भी हिजमत के मानव कल्याणकारी कार्यक्रमों को बंद करवा दिया। इदरेगन ने अपनी सनक में एक लाख लोगों को नौकरियों से निकलवा दिया। हजारों लोग जेलों में ठूंस दिए गए। इसमें पत्रकार, स्कूल अध्यापक, सैनिक, अधिकारी और विपक्ष के नेता शामिल हैं।
ब्रिटेन की संसद की विदेश मामलों की समिति की रिपोर्ट में गुलेन को तुर्की में इदरेगन को अपदस्थ करने के आरोपों को झूठा पाया गया है। समिति का कहना है कि गुलेन से प्रभावित कुछ लोग इसमें शामिल हो सकते हैं लेकिन यह प्लॉट गुलेन ने तैयार नहीं किया। समिति ने यह भी माना कि ब्रिटेन हो या तुर्की, बगावत के लिए एक व्यक्ति पर उंगली नहीं उठा सकते। समिति ने इस बात पर भी नाराजगी जताई कि तुर्की ने गुलेन की संस्था पर जो कड़ी कार्रवाई की, उसकी आवश्यकता नहीं थी। इसके अलावा जर्मनी की ख़ुफिया एजेंसी बीएनडी के प्रमुख ब्रूनो कहल ने भी इस बात से इनकार किया कि तुर्की में पिछली जुलाई में सत्तापलट के पीछे गुलेन या उनकी संस्था का हाथ है। बगावत के नाम पर इदरेगन को अपने राजनीतिक दुश्मनों के दमन का मौका मिल गया, जिसमें गुलेन का नाम सबसे प्रमुख है। अभी तक अमेरिका का रवैया यही रहा कि तुर्की ने गुलेन के कथित बगावत में हाथ होने के सबूत देने के बाद भी अमेरिका गुलेन के प्रत्यर्पण पर राजी नहीं। मगर निर्दोष होते हुए भी मानवता की सेवा करने के मासूम गुनाह ङोल रहे फतउल्लाह गुलेन के लिए ट्रंप सरकार के सुर बदल रहे हैं। गुलेन और उनके समर्थकों की चिंता वॉल स्ट्रीट जरनल को अमेरिकी ख़ुफि़या एजेंसी के पूर्व निदेशक जेम्स वूलसी के एक साक्षात्कार ने बढ़ा दी है जिसमें वूलसी ने कहा कि ट्रंप के पूर्व सुरक्षा सलाहकार माइकल फैलिन के साथ वह तुर्की के अधिकारियों से पिछली सितंबर में मिले थे, जिसमें गुलेन को तुर्की को प्रत्यर्पित करने पर बात हुई थी। यह चिंताजनक है क्योंकि विश्व के सबसे उदार और मानववादी आंदोलन के नेता को एक झूठे मामले में इस्लामिक स्टेट के मित्र और तुर्की के राष्ट्रपति तैयब इदरेगन को नहीं सौंपा जा सकता। भारत मेंभी गुलेन के कई शिक्षा और स्वास्थ्य से जुड़े मानवतावादी कार्यक्रम चल रहे हैं। इदरेगन ने भारत पर भी ‘हिजमत आंदोलन’ को बंद करने का दबाव बनाया लेकिन भारत में नरेंद्र मोदी की सरकार ने उनकी इस मांग को अनसुना कर दिया। आज भी पूरी दुनिया में हिजमत शिक्षा और स्वास्थ्य के अपने कार्यक्रमों को निर्बाध रूप से चला पा रही है तो भारत भी उसमें एक देश है। मुस्लिम जगत में वहाबी विचारधारा के माध्यम से अपनी पहुंच रखने वाली मुस्लिम ब्रदरहुड और भारत में तुर्की के राजदूत ने गुलेन को सत्तापलट के लिए जिम्मेदार ठहराने के लिए कोई कसर नहीं छोड़ी।
वहाबी विचारक और लखनऊ के मदरसा नदवा के मौलाना सलमान नदवी ने बगावत के दूसरे ही दिन पत्र लिखकर गुलेन को इसका जिम्मेदार मानते हुए उन्हें अमेरिका और इजरायल का एजेंट बता दिया। जमाते इस्लामी मुस्लिम ब्रदरहुड की भारत में समर्थक है। जमात ने गुलेन को जिम्मेदार माना। तुर्की के राजदूत से मुलाकात के बाद दिल्ली की जामा मस्जिद के इमाम अहमद बुखारी ने जुमे की नमाज के बाद गुलेन को मस्जिद में ही जिम्मेदार ठहरा दिया। जमाते इस्लामी हिन्द के महमूद मदनी ने इदरेगन का समर्थन किया। सबसे चौंकाने वाला कदम प्रधानमंत्री मोदी के साथ सूफी कांफ्रेंस करने वाली संस्था ऑल इंडिया उलेमा एंड मशाइख बोर्ड का रहा। बोर्ड के प्रमुख मौलाना मुहम्मद अशरफ कि छौछवी और उनकी सहयोगी संस्था चिश्ती फांउडेशन के सलमान चिश्ती ने दिल्ली में तुर्की के राजदूत से मिलकर इदरेगन के प्रति सहानुभूति जताई जिसका मतलब होता है कि वह सूफी होने के बावजूद गुलेन के साथ नहीं, वहाबी मुस्लिम ब्रदरहुड के साथ हैं। देवबंदी और वहाबी का समर्थन इदरेगन को स्वाभाविक है लेकिन भारत के बहुसंख्यक सूफी समुदाय ने ऑल इंडिया उलेमा एंड मशाइख बोर्ड और चिश्ती फाउंडेशन की इस बात के लिए आलोचना की कि वह वहाबी मुस्लिम ब्रदरहुड और इस्लामिक स्टेट के दोस्त तुर्की के राष्ट्रपति इदरेगन के साथ कैसे खड़े हो सकते हैं? यह गुलेन के लिए नहीं, वैश्विक शांति के लिए उदार आंदोलनों के लिए कड़ा समय है।
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